तेज रफ्तार से भागती-बीतती ज़िन्दगी में तमाम तनावों व संघर्षों के साथ सबको एंटरटेनमेंट की बहुत जरुरत होती है. ‘फ़िल्में’ ये काम हमारे लिए सौ सालों से करती आ रही हैं और आजकल तो ये हम सभी के जीवन का और ज्यादा अंदरूनी और अनिवार्य सा हिस्सा बनते जा रहा है. चाहें हम उसे सिनेमाहाल में देखें, घर पर या नेटफ्लिक्स पर . अपने एकरस जिंदगी में हमे अपने दिमाग को, मन को रिफ्रेश करने की बहुत जरूरत होती है . भारत में अगर हम फिल्मों के बारे में बात करें तो हमारी जो फिल्म इंडस्ट्री है, वो बहुत सारी भाषाओँ में बंटी हुई हैं ऐसा सिर्फ भारत में देखने को मिलता है . हमारी मुख्य फिल्म इंडस्ट्री जिसे कि बॉलीवुड भी कहा जाता है, पूरी दुनिया में बॉलीवुड सबसे ज्यादा फ़िल्में बनाने के लिए मशहूर है .बॉलीवुड की फिल्मों का स्तर हर क्षेत्र में बेहतर से बेहतर होता जा रहा है और पूरी दुनिया में पसंद किया जा रहा. बॉलीवुड ने बहुत सारे विषयों को अपनी कहानी का केंद्र बिंदु बनाया है, जो समाज से ही लिए जाते हैं और जिनकी समाज में कभी-कभी उतनी चर्चा भी नहीं होती . जाति व्यवस्था, महिला सशक्तिकरण, समाज में व्याप्त हर तरह की कुरीतियाँ, असमानताएं, विलक्षणताएं कोई भी विषय या मुद्दा अब अछूता नही है .बॉलीवुड में इस वक्त बायोपिक का भी काफी चलन है, बायोपिक का कांसेप्ट बायोग्राफी से आया है अर्थात किसी एक व्यक्ति विशेष की कहानी . यह फ़िल्में किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति के जीवन के वर्तमान और अतीत को दर्शाती हैं . एक ऐसा व्यक्तित्व, जिसके जीवन के संघर्षों से वाकई आम जनता को परीचित होना चाहिए जैसे कोई महान खिलाड़ी, नेता, वैज्ञानिक, डॉक्टर या कोई साधारण इन्सान जिसने असाधारण कार्य किया हो . इस तरह की फ़िल्में दर्शकों द्वारा बहुत पसंद भी की जा रही हैं इसलिये इधर एक दो दशक से बायोपिक फिल्मों का निर्माण व चलन बढ़ गया है जैसे धोनी, मेरी कॉम, भाग मिल्खा भाग, डर्टी पिक्चर, मंगल पाण्डेय, शहीद भगत सिंह, नो वन किल्ड जेसिका, नीरजा जैसी फ़िल्में आयीं और इन फिल्मों के कारण आम जनता इन व्यक्तित्व और इनके असाधारण कार्यों व संघर्षों को जान सकी.
इन फिल्मों के हिट होने के पीछे कोई बहुत बड़ा रॉकेट साइंस नही है, सारी कलाकारी व्यक्तित्व के चुनाव की और उस व्यक्तित्व के जीवन के संघर्षों व तथ्यों को इकट्ठा करने की है . इस साल भी कुछ बायोपिक बनाई जा रही हैं, जिसमें एकदम अलग सी रोचक और प्रेरणादायी कहानी है ‘द स्काई इज पिंक’ की . इस बार यह थोड़े से अलग विषय को लेकर बनाई जा रही है, इस फिल्म में मुख्य किरदार के रूप में प्रियंका चोपड़ा, जायरा वसीम और फरहान अख्तर हैं . यह फिल्म सोनाली बोस द्वारा निर्देशित की जा रही है .
 ये फ‍िल्‍म गुरुग्राम की रहने वाली 13 साल की मोट‍िवेशनल स्‍पीकर आयशा चौधरी पर आधार‍ित है। आयशा को ‘इम्‍यून ड‍िफ‍िश‍िएंसी ड‍िस्‍आर्डर’ की समस्‍या थी, ज‍िसकी वजह से 2015 में मौत से हार कर भी जिंदगी से जीत गयी . आयशा ने टॉक शोज में व्‍याख्‍यान द‍िए और फेमस हो गई थीं। फरहान और प्र‍ियंका इस फ‍िल्‍म में आयशा के पैरेंट्स का रोल प्‍ले किया है । टीन एजर मोटिवेशनल स्पीकर आयशा चौधरी की के माता-पिता अदिति चौधरी और नीरेन चौधरी हैं . इस फिल्म की पूरी कथावस्तु छोटी-छोटी घटनाओं को बुनती हुई, मर्म को छूती हुई, बेहद भावुक करने वाली और जीवन के एक-एक क्षण को जीना सिखाने वाली है . हर माता पिता की तरह नीरेन और अदिति के घर में भी आयशा खुशियों की सौगात लेकर आती है . आयशा को छोटी उम्र में ही ‘इम्‍यून ड‍िफ‍िश‍िएंसी ड‍िस्‍आर्डर’ है, इस बीमारी के कारण रोगों से लड़ने की क्षमता खत्म हो जाती है . आयशा के जन्म पर डॉ ने बताया की ये बच्चा मुश्किल से 6 महीने या साल भर जिंदा रहेगा पर आयशा की जिजीविषा ने उसे जिंदा रखा . इंग्लैण्ड में 6 महीने की आयशा के रीढ़ का बोन नैरो ट्रांसप्लांट हुआ, उसके बाद वह धीरे-धीरे डॉक्टर को गलत सिद्ध करते हुए, संघर्ष करते हुए बड़ी हुई . ट्रीटमेंट के दौरान उसे कीमोथेरेपी से भी गुजरना पड़ा जिसकी वजह से उसे ‘पलमोनरी फाईबोरसिस’ जो कि फेफड़ों की एक बहुत खतरनाक बीमारी है, जिसकी वजह से उसका चलना-फिरना ही नहीं सांस लेना भी बहुत मुश्किल हो गया . हालाँकि उसकी हालत ऐसी थी कि इम्यून सिस्टम न होने के कारण एक सामान्य बुखार या खाँसी से भी उसकी मौत हो सकती थी लेकिन वह बचपन से ही योद्धा थी . इतनी त्रासदियों और विसंगतियों के बावजूद वो स्कूल जाती थी, आर्ट सीखती थी और अपने दोस्तों से मिलती थी. कई बार उसे ऑक्सीजन और व्हील चेयर का भी सहारा लेना पड़ता था, धीरे धीरे आयशा और उसके पेरेंट्स की मुश्किलें बढ़ती चली गईं . स्कूल में धीरे-धीरे वो दूसरों पर निर्भर होने लगी, जिसकी वजह से उसके कुछ दोस्त भी कटे-कटे से रहने लगे पर आयशा ने हार ना मानते हुए और ज़िन्दगी से लड़ते हुए हर क्षण को जीया . उसे मालूम था कि उसकी हर सांस गिनी हुई है फिर भी वो अपने जीवन में लोगों के लिए कुछ अच्छा कर के जाना चाहती थी, जिसकी वजह से लोग उसे याद रखें . इन्ही सब सोच के साथ धीरे-धीरे उसका झुकाव लोगों को मोटिवेशनल स्पीच देने की तरफ हुआ . इसमें उसके पिता ने उसकी बहुत मदद की और इस पर वह इन्टरनेट पर बहुत रिसर्च करती, कोट खोजती, कई पन्ने लिखती फिर अपने प्रेजेंटेशन को तैयार करती . टेड टॉक्स, इंक टॉक जैसे बहुत बड़े-बड़े प्लेटफोर्म जो कि दुनिया में बहुत प्रसिद्द हैं पर जाकर उसने अपने वक्तव्य दिए और हजारों लोगों को प्रेरित किया . अपने आखिरी वक्त में वह पूरी तरह बेड पर पड़ी थी, अब उसे बहुत ज्यादा गुस्सा भी आने लगा था . हम उसकी इस कंडीशन को उस लेवल पर नहीं समझ सकते पर इन सब हालातों के बावजूद भी अपनी मौत के एक दिन पहले ‘My Little Epiphanies’ नाम की किताब 23 जनवरी 2015 को पब्लिश हुई और 24 जनवरी को आयशा इस दुनिया को छोड़ गई .

जिस कच्‍ची उम्र में युवाओं को यही नही पता होता है कि वो क्या कर रहे हैं? क्या करना है ऐसी उम्र में आयशा चौधरी ने सबसे बड़ी लड़ाई लड़ी। लड़ाई खुद से, जिंदगी से समाज से . इस गंभीर बीमारी से जूझती आयशा हिम्मत नहीं हारती है और 13 साल की उम्र में ही जिंदगी को इतने करीब से समझ जाती हैं कि बड़े-बड़े मंचों पर बोलने लगती हैं। आयशा की मौत करीब थी लेकिन लोगों को अपनी बातों से जीवन देती रही। एक बार आयशा ने अपनी स्पीच में कहा था कि उसने कई रातें बिना सोए हुए बिताई हैं, लेकिन वह घबराती नही क्योंकि उसे पता है कि वह मरने वाली है। जब उसे एक दिन मरना ही है तो फिर हर पल को जीना चाहिए। इन सब मुश्किलों के बाद भी आयशा हर रोज 5 हजार शब्द लिखती थी .
 आयशा ने दुनिया में किसी भी बीमारी से ग्रस्त लोगों को एक राह दिखाई और हर पल जीने का और हर पल खुश रहने का सन्देश दिया . इतनी छोटी उम्र में इतनी बीमारियों से ग्रस्त होने के बाद भी आयशा अपने जीवन से कभी निराश नही थी, वह दूसरों को जीवन में प्रेरित करती थी . इसके बहाने यह उन मां-बाप के संघर्षों और साहस की झलक भी दिखाती है जिसके बच्चे किसी ऐसी बीमारी के शिकार होते हैं और जिन्होंने अपनी बेटी के उम्र को कुछ दिनों से बढ़ाकर सालों में बदल दिया. ऐसा करते हुए फिल्म और किताब बिना कहे बार-बार दोहराती है कि जीवन ठीक वैसा ही है जैसा आप उसे बनाना चाहते हैं. ज़िंदगी की तमाम चुनौतियों के बावज़ूद इसे मनचाहे रंग में ढालना भी आसान है अगर आप मानसिक मनोवैज्ञानिक व शारीरिक रूप से कमिटेड हैं . ‘My Little Epiphanies’ में आयशा ने अपने जीवन की यात्रा को बताते हुए लोगों को जबरदस्त प्रभावी तरीके से प्रेरित किया है . यह किताब लॉन्च होने के कुछ घंटों बाद ही हमने एक आश्चर्यजनक और अद्भुत प्रतिभा व क्षमता वाली मोटिवेटर को खो दिया . यह फिल्म आयशा की जिंदगी के अंदर झाँकने की कोशिश करती है कि किस प्रकार वो पल-पल मौत को धोखा देते हुए जिंदगी को जीती और जीतती है .